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23 January 2014

महत्मा बुद्घ के जीवन की एक प्रेरक कथा

fruitful result of voice control
दार्शनिकों ने इंद्रियों के संयम को जीवन की सफलता का प्रमुख साधन कहा है। मन पर नियंत्रण करके ही इंद्रिय संयम संभव है। वाणी का जितना हो सके, कम उपयोग करने में ही कल्याण है। वाणी पर संयम करनेवाला किसी की निंदा के पाप, कटु वचन बोलकर शत्रु बनाने की आशंका, अभिमान जैसे दोषों से स्वतः बचा रहता है।

एक बार भगवान बुद्ध एक वृक्ष के नीचे एकाग्रचित्त बैठे हुए थे। उनसे द्वेष रखने वाला एक कुटिल व्यक्ति उधर से गुजरा। उसने वृक्ष के पास खड़े होकर बुद्ध के प्रति अपशब्दों का उच्चारण किया। बुद्ध मौन रहे। उन्हें शांत देखकर वह वापस लौट आया। रास्ते में उसकी अंतरात्मा ने उसे धिक्कारा कि एक शांत बैठे साधु को गाली देने से क्या मिला?

वह दूसरे दिन फिर से बुद्ध के पास पहुंचा। हाथ जोड़कर बोला, मैं कल अपने द्वारा किए गए व्यवहार के लिए क्षमा मांगता हूं।

बुद्ध ने कहा, मैं कल जो था, आज वैसा नहीं हूं। तुम भी वैसे नहीं हो, क्योंकि जीवन प्रतिपल बीत रहा है। नदी के एक ही पानी में दोबारा नहीं उतरा जा सकता। जब वापस उतरते हैं, तो वह पानी बहकर आगे चला जाता है।

तुमने कल क्या कहा, मुझे नहीं मालूम, और जब मैंने कुछ सुना ही नहीं, तो ये शब्द तुम्हारे पास वापस लौट गए। बुद्ध के शब्दों ने उसे सहज ही वाणी के संयम का महत्व बता दिया।

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