फोन पर मैं हर वक्त ऑनलाइन रहती थी
70 फीसदी अमरीकी सुबह उठकर परिजनों को देखने के बजाय सबसे पहले अपना फ़ोन चेक करते हैं।
48 फीसदी लोग वीकेंड और पारिवारिक छुट्टियों के दौरान लगातार फ़ोन पर रहते हैं।
44 फीसदी लोगों ने ये माना कि उनका फ़ोन अगर कहीं खो जाए तो वे ‘बेहद तनाव’ में आ जाएंगे।
''फ़ोन पर मैं हर वक्त ऑनलाइन रहती थी। काम से जब भी
फुर्सत मिलती थी मैं सबसे पहले ये देखती थी कि रितेश क्या कर रहे हैं।
अरेंज्ड मैरिज है लेकिन हमने फेसबुक पर ही एकदूसरे को पसंद किया था...लेकिन
शादी तय होने के बाद अचानक मुझे लगा कि सब कुछ गलत हो रहा है...वो मुझे
कहते थे कि मैं ट्रेनिंग में हूं लेकिन उस दौरान व्हाट्स ऐप पर लगातार
ऑनलाइन दिखते थे...मुझे हर छोटी-बड़ी बात अपने दोस्तों को रितेश को बताना
अच्छा लगता है लेकिन कई बार ऐसा हुआ कि फेसबुक पर मेरा चैट पढने यानी 'सीन'
का नोटिफ़िकेशन आने के बाद भी वो काफी देर से जवाब देते थे। रितेश को लेकर
मैं हर वक्त बेहद इंसिक्योर महसूस करने लगी।।’’
मोबाइल इंटरनेट की दुनिया में जहां आप और आपका मोबाइल है, वहीं आपकी सेवा में हाज़िर हैं फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स ऐप यानी सोशल मीडिया का हर मंच।
‘कॉन्सटेंट कनेक्टिविटी’
आमना और रितेश के रिश्ते की शुरुआत फेसबुक पर मैसेजिंग से हुई है, लेकिन जल्द ही उन्हें एहसास हुआ कि उनका नया-नवेला रिश्ता ‘कॉन्सटेंट कनेक्टिविटी’ की भेंट चढ़ता जा रहा है।
फेसबुक पर आमना की सेल्फ़ीज़ (खुद अपने हाथों ली गई अपनी तस्वीर) और उनपर उमड़ पड़ने वाले लाइक्स रितेश को असहज बनाते थे और रितेश कब, कहां, किस समय, किस काम में व्यस्त है इसकी जानकारी पाने के लिए आमना को जासूसी की नहीं बल्कि फेसबुक पर लॉग-इन करने भर की देर थी। सोशल मीडिया की सच्चाई उनके लिए आपसी बातचीत से बढ़कर हो गई थी।
आमना और रितेश, नाम कोई भी हो ये कहानी किसी न किसी तरह हर उस व्यक्ति की ज़िंदगी का हिस्सा है जिनके लिए अब असल ज़िंदगी से असली है सोशल मीडिया पर उनकी ज़िंदगी।
डेस्कटॉप कंप्यूटर से उठकर सोशल मीडिया अब मोबाइल के ज़रिए हर वक्त हमारे साथ है। लेकिन तकनीक के इस बदलाव ने सोशल मीडिया के इस्तेमाल को हमारी ज़िंदगी को भी बदल दिया है।
दुनिया की हर अच्छाई में अब हम पलक झपकते शामिल हैं क्योंकि फ़ोन पर फेसबुक है और माहौल ‘बदलने’ के लिए बस एक अदद लाइक की दरकार है।। दुनिया की हर बुराई पर हमारी एक राय है जिसे पोस्ट करते ही दिल बेचैन है ये जानने के लिए कि बहस कितनी बड़ी हुई।
'नारसिसिज़्म'
सोशल मीडिया विशेषज्ञों के शब्दों में कहें तो मिलेनियल 'नारसिसिज़्म' यानी इस भुलावे में जी रहे हैं कि पूरी दुनिया की नज़र हमपर है। यही वजह है कि हम केवल अपने खूबसूरत और सबसे खुशनुमा सच को ही तराशकर लोगों के सामने रखना चाहते हैं।
ट्रैवलिंग के बेहद के शौकीन सौगत गुप्ता ने 2010 में अपने फ़ोन पर इंटरनेट की सुविधा ली। जल्द ही देश-दुनिया के छिपे-अनजाने कोनों से उनकी तस्वीरें 'रीयल टाइम' में फेसबुक पर आने लगीं। लोग उनके इस शौक के दीवाने हुए और जल्द ही सौगत ने अपनी ट्रैवलिंग वेबसाइट शुरु की। अब ये उनके लिए कमाई का ज़रिया भी है लेकिन इस सब के बीच एक चीज़ है जो उन्हें लगातार परेशान करती है।
''मैं अब कहीं भी जाता हूं तो ये सोचकर तस्वीरें लेता हूं कि ये फेसबुक पर ये कितनी लोकप्रिय होंगी। दिमाग़ हर वक्त एक अच्छे स्टेटस मैसेज की तलाश में रहता है। एक समय तो ऐसा आ गया था जब मैं उन दोस्तों से नाराज़ होने लगा जो मेरे स्टेटस मैसेज नज़रअंदाज़ कर देते थे। अब थोड़ा संभल गया हूं।''
ऑनलाइन रहने की लत
स्मार्टफोन के इस्तेमाल और ‘कॉन्सटेंट कनेक्टिविटी’ के ज़रिए हर वक्त ऑनलाइन रहने की लत पर हार्वर्ड बिज़नस स्कूल में हुए एक अध्ययन के मुताबिक 70 फीसदी अमरीकी सुबह उठकर अपने परिजनों को देखने के बजाय सबसे पहले अपना फ़ोन चेक करते हैं।
वहीं 48 फीसदी लोग वीकेंड और पारिवारिक छुट्टियों के दौरान लगातार फ़ोन पर रहते हैं। अध्ययन में शामिल 44 फीसदी लोगों ने ये माना कि उनका फ़ोन अगर कहीं खो जाए तो वे ‘बेहद तनाव’ में आ जाएंगे।
लेकिन फ़ोन से मिली ‘कॉन्सटेंट कनेक्टिविटी’ की इस सुविधा ने क्या हमें बेहद असुरक्षित बना दिया है? क्या ज़िंदगी का हर छोटा-बड़ी लम्हा अब हम सोच-समझकर नहीं बल्कि एक तरह के आवेग में जीते हैं।
एक ज़माने में अपनी बात कहने के लिए चिठ्ठियों का सहारा लिया जाता था तब मन में उठी बात और दूसरे तक उसे पहुंचाने के बीच एक लंबा अंतराल था। इस बीच हम अपने ख्याल से कई से बार बात करते थे, एक पोस्टकार्ड के भीतर उसे ढालने के लिए शब्दों की कांट-छांट से गुजरते थे, कागज़-पेन ढूंढने और टिकट का जुगाड़ करने में कुछ वक्त बीतता था और फिर तैयार होती थी वो चिठ्ठी जो सिर्फ़ उनके हाथ में होगी जो इतने क़रीब हैं कि उनके लिए इस लंबी प्रक्रिया से गुज़रना अच्छा लगे।
लेकिन आज फेसबुक-ट्विटर और सोशल मीडिया के रुप में हर वक्त एक पोस्ट बॉक्स हमारे साथ चलता है जिसने सोचने और लिखने की दूरी को खत्म कर दिया है। बतकही अब कमान से निकले उस तीर की तरह है जिसका वापस लौटना मुमकिन नहीं। कुलमिलाकर ये आवेग यानी 'इम्पल्सिवनेस' हमसे जो न कराए वो कम है!
सोशल मीडिया बनाम 'इम्पल्सिवनेस'
सुनंदा पुष्कर का मामला बेहद ताज़ा है लेकिन ‘कॉन्सटेंट कनेक्टिविटी’ के चलते हथियार बन गए मोबाइल फ़ोन पर आवेग का शिकार होने वालों की सूची दिन पर दिन लंबी होती जा रही है।
इस बदलाव को हम रोक तो नहीं सकते लेकिन ज़रूरत है दो घड़ी रुककर ये सोचने की कि हमारी रोज़मर्रा ज़िंदगी अपनी चाल से चलने के बजाय भागते-दौड़ते हमारे सोशल नेटवर्क के बीच कहीं हांफ़ने तो नहीं लगी।
मोबाइल इंटरनेट की दुनिया में जहां आप और आपका मोबाइल है, वहीं आपकी सेवा में हाज़िर हैं फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स ऐप यानी सोशल मीडिया का हर मंच।
‘कॉन्सटेंट कनेक्टिविटी’
आमना और रितेश के रिश्ते की शुरुआत फेसबुक पर मैसेजिंग से हुई है, लेकिन जल्द ही उन्हें एहसास हुआ कि उनका नया-नवेला रिश्ता ‘कॉन्सटेंट कनेक्टिविटी’ की भेंट चढ़ता जा रहा है।
फेसबुक पर आमना की सेल्फ़ीज़ (खुद अपने हाथों ली गई अपनी तस्वीर) और उनपर उमड़ पड़ने वाले लाइक्स रितेश को असहज बनाते थे और रितेश कब, कहां, किस समय, किस काम में व्यस्त है इसकी जानकारी पाने के लिए आमना को जासूसी की नहीं बल्कि फेसबुक पर लॉग-इन करने भर की देर थी। सोशल मीडिया की सच्चाई उनके लिए आपसी बातचीत से बढ़कर हो गई थी।
आमना और रितेश, नाम कोई भी हो ये कहानी किसी न किसी तरह हर उस व्यक्ति की ज़िंदगी का हिस्सा है जिनके लिए अब असल ज़िंदगी से असली है सोशल मीडिया पर उनकी ज़िंदगी।
डेस्कटॉप कंप्यूटर से उठकर सोशल मीडिया अब मोबाइल के ज़रिए हर वक्त हमारे साथ है। लेकिन तकनीक के इस बदलाव ने सोशल मीडिया के इस्तेमाल को हमारी ज़िंदगी को भी बदल दिया है।
दुनिया की हर अच्छाई में अब हम पलक झपकते शामिल हैं क्योंकि फ़ोन पर फेसबुक है और माहौल ‘बदलने’ के लिए बस एक अदद लाइक की दरकार है।। दुनिया की हर बुराई पर हमारी एक राय है जिसे पोस्ट करते ही दिल बेचैन है ये जानने के लिए कि बहस कितनी बड़ी हुई।
'नारसिसिज़्म'
सोशल मीडिया विशेषज्ञों के शब्दों में कहें तो मिलेनियल 'नारसिसिज़्म' यानी इस भुलावे में जी रहे हैं कि पूरी दुनिया की नज़र हमपर है। यही वजह है कि हम केवल अपने खूबसूरत और सबसे खुशनुमा सच को ही तराशकर लोगों के सामने रखना चाहते हैं।
ट्रैवलिंग के बेहद के शौकीन सौगत गुप्ता ने 2010 में अपने फ़ोन पर इंटरनेट की सुविधा ली। जल्द ही देश-दुनिया के छिपे-अनजाने कोनों से उनकी तस्वीरें 'रीयल टाइम' में फेसबुक पर आने लगीं। लोग उनके इस शौक के दीवाने हुए और जल्द ही सौगत ने अपनी ट्रैवलिंग वेबसाइट शुरु की। अब ये उनके लिए कमाई का ज़रिया भी है लेकिन इस सब के बीच एक चीज़ है जो उन्हें लगातार परेशान करती है।
''मैं अब कहीं भी जाता हूं तो ये सोचकर तस्वीरें लेता हूं कि ये फेसबुक पर ये कितनी लोकप्रिय होंगी। दिमाग़ हर वक्त एक अच्छे स्टेटस मैसेज की तलाश में रहता है। एक समय तो ऐसा आ गया था जब मैं उन दोस्तों से नाराज़ होने लगा जो मेरे स्टेटस मैसेज नज़रअंदाज़ कर देते थे। अब थोड़ा संभल गया हूं।''
ऑनलाइन रहने की लत
स्मार्टफोन के इस्तेमाल और ‘कॉन्सटेंट कनेक्टिविटी’ के ज़रिए हर वक्त ऑनलाइन रहने की लत पर हार्वर्ड बिज़नस स्कूल में हुए एक अध्ययन के मुताबिक 70 फीसदी अमरीकी सुबह उठकर अपने परिजनों को देखने के बजाय सबसे पहले अपना फ़ोन चेक करते हैं।
वहीं 48 फीसदी लोग वीकेंड और पारिवारिक छुट्टियों के दौरान लगातार फ़ोन पर रहते हैं। अध्ययन में शामिल 44 फीसदी लोगों ने ये माना कि उनका फ़ोन अगर कहीं खो जाए तो वे ‘बेहद तनाव’ में आ जाएंगे।
लेकिन फ़ोन से मिली ‘कॉन्सटेंट कनेक्टिविटी’ की इस सुविधा ने क्या हमें बेहद असुरक्षित बना दिया है? क्या ज़िंदगी का हर छोटा-बड़ी लम्हा अब हम सोच-समझकर नहीं बल्कि एक तरह के आवेग में जीते हैं।
एक ज़माने में अपनी बात कहने के लिए चिठ्ठियों का सहारा लिया जाता था तब मन में उठी बात और दूसरे तक उसे पहुंचाने के बीच एक लंबा अंतराल था। इस बीच हम अपने ख्याल से कई से बार बात करते थे, एक पोस्टकार्ड के भीतर उसे ढालने के लिए शब्दों की कांट-छांट से गुजरते थे, कागज़-पेन ढूंढने और टिकट का जुगाड़ करने में कुछ वक्त बीतता था और फिर तैयार होती थी वो चिठ्ठी जो सिर्फ़ उनके हाथ में होगी जो इतने क़रीब हैं कि उनके लिए इस लंबी प्रक्रिया से गुज़रना अच्छा लगे।
लेकिन आज फेसबुक-ट्विटर और सोशल मीडिया के रुप में हर वक्त एक पोस्ट बॉक्स हमारे साथ चलता है जिसने सोचने और लिखने की दूरी को खत्म कर दिया है। बतकही अब कमान से निकले उस तीर की तरह है जिसका वापस लौटना मुमकिन नहीं। कुलमिलाकर ये आवेग यानी 'इम्पल्सिवनेस' हमसे जो न कराए वो कम है!
सोशल मीडिया बनाम 'इम्पल्सिवनेस'
सुनंदा पुष्कर का मामला बेहद ताज़ा है लेकिन ‘कॉन्सटेंट कनेक्टिविटी’ के चलते हथियार बन गए मोबाइल फ़ोन पर आवेग का शिकार होने वालों की सूची दिन पर दिन लंबी होती जा रही है।
इस बदलाव को हम रोक तो नहीं सकते लेकिन ज़रूरत है दो घड़ी रुककर ये सोचने की कि हमारी रोज़मर्रा ज़िंदगी अपनी चाल से चलने के बजाय भागते-दौड़ते हमारे सोशल नेटवर्क के बीच कहीं हांफ़ने तो नहीं लगी।