ब्रह्विद्या विहंगम योग आश्रम रोहिडांवाली में मासिक सत्संग आयोजित
ओढ़ां
यदि किसी से पुछा जाये कि तुम कौन हो तो वह अपना नाम, जाति, वंश आदि ही बताएगा। हम अक्सर बोलते हैं यह मेरा हाथ है, यह मेरा पांव है, यह मेरा शरीर है तथा ये मेरी आंखें है। कभी ये सोचा कि यह सब मेरा है कहने वाला कौन है? अर्थात मैं कौन हूं? कभी गंभीरता के साथ एकांत में बैठकर इस पर विचार करोगे तो जवाब मिलेगा कि तू आत्मा है, तू जीव है, जीवात्म है, तू चाहे किसी भी जाति का हो, कोई भी भाषा बोलता हो या किसी भी धर्म का हो इससे कोई फर्क नही पड़ता है?
उक्त शब्द ब्रह्मविद्या विहंगम योग आश्रम रोहिडांवाली में आयोजित मासिक सत्संग में श्रद्धालुओं के समक्ष प्रवचन पढ़ते हुये साधक राजाराम गोदारा ने कहे। उन्होंने बताया कि यह मानव शरीर आकाश, वायु, पृथ्वी, अग्नि व जल इन पांच तत्वों सें निर्मित है। इसी प्रकार आत्मा के भी छ: देह क्रमश: हंस देह, कैवल्य देह, महाकारण देह, कारण देह, सूक्ष्म देह तथा स्थूल देह होती है। इस स्थूल शरीर का निर्माण भी उक्त पांच तत्वों से होता है। इसमें पांच ज्ञानेन्द्रियां क्रमश: कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा तथा नासिका होती हैं, जो शब्द स्पर्श, रुप, स्वाद तथा गंध के सवेंद ग्रहण करती है और पांच कार्मेन्द्रियां क्रमश: वाणी, हाथ, पांव, लिंग तथा गुदा होती हैं जो बोलने, पकडऩे, चलने, मूत्रत्याग एवं प्रजनन तथा मल त्याग करने की क्रियायें सम्पन्न करती है।
उन्होंने बताया कि इनके अतिरिक्त चार भीतरी इन्द्रियां मन, बु?द्धि, चित्त तथा अंहकार होते है। पांच प्राण: प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान व पांच उपप्राण कृकिल, कूर्म, नाग, धनंजय, देवदत्त होते हैं। इन सभी में मन महत्वपूर्ण है। सुक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से भिन्न है क्योंकि इसमे केवल उन पांच तत्वों का अभाव होता है जिनसे स्थूल शरीर का निर्माण होता है बाकी सभी इन्द्रियां, प्राण व अन्त:करण आदि बीज रुप में विद्यमान रहतें हैं। जब शरीर में मन, बुद्धि व प्राण का अभाव हो जाता है तो यह कारण शरीर कहलाता है। यानि इसमें चित्त, अहंकार व प्रकृति के तीन गुण सत, रज व तम विद्यमान रहते हैं। जब शरीर में प्रकृति के इन तीनो गुणो का भी अभाव हो जाता है और आत्मा असीमित बल व तेज को प्राप्त करती है तो यह महाकारण शरीर कहलाता है। जब आत्मा परमात्मा सें सयुंक्त होकर असीम आनंद को प्राप्त कर परमात्मा के सभी गुणो को धारण कर लेता है तो इसे कैवल्य अवस्था कहते हैं। ऐसे में अज्ञानवश आत्मा में 'मैं ब्रह्म हूँ' जैसे भाव का उदय होता है जो आत्मा के पतन का मुख्य कारण है। जब आत्मा परमात्मा के सानिध्य में योग की उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर अपने अहंकार का त्याग करता है तो आत्मा की यह अवस्था हंस अवस्था कहलाती है। उन्होंने बताया कि इस अवस्था को प्राप्त कर आत्मा परमानन्द के अनन्त सागर में गोते लगाती है। इस मौके पर जगदीश चंद्र, जगमाल राम, धर्मपाल, अमर सिंह, और रविकुमार सहित अनेक श्रद्धालु मौजूद थे।
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