सपना बनकर ही न रह जाए सशक्तीकरण
दरअसल आज की दुनिया में पुरुषों और महिलाओं को शक्ति का एहसास दिलाने के लिए बुनियादी शिक्षा बेहद जरूरी है। लेकिन इस मोर्चे पर फिलहाल भारत में काफी कुछ करना शेष है। यूनेस्को की ताजा 'ऑल ग्लोबल मॉनीटरिंग रिपोर्ट' (जीएमआर) भी इसकी तसदीक करती है। रिपोर्ट कहती है कि भारत ने शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है। लेकिन इसके बावजूद अशिक्षित वयस्कों की संख्या के मामले में भारत अभी भी दुनिया में अव्वल बना हुआ है। दुख की बात है कि आज भी 28 करोड़ से ज्यादा भारतीय पढ़ या लिख नहीं सकते। यहां समस्या केवल असाक्षरता तक सीमित नहीं है। दरअसल प्राइमरी स्कूलों में बच्चों के दाखिले के मामले में भारत ने प्रगति की है। लेकिन इन स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर अभी भी दयनीय बना हुआ है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट ने भारत को उन 21 देशों में शामिल किया है, जहां सीखने के माहौल का गंभीर अभाव है।
रिपोर्ट के मुताबिक इसकी एक बड़ी वजह यह है कि उत्साह में भारत ने बच्चों के लिए बेहद महत्वाकांक्षी पाठ्यक्रम अपनाया हुआ है। यह स्थिति वियतनाम जैसे देशों के ठीक विपरीत है, जहां बच्चों को आधारभूत कौशल देने पर खास ध्यान दिया जाता है और उनकी सीखने की क्षमता के आधार पर ही पाठ्यक्रम तैयार किया जाता है। वहीं भारत में पाठ्यक्रम तैयार करने के दौरान इस बात का बिल्कुल ध्यान नहीं रखा जाता कि उपलब्ध समय में बच्चे वास्तव में कितना सीख सकते हैं। इसी वजह से चार वर्ष की स्कूली शिक्षा के बाद भी गरीब परिवारों के 90 प्रतिशत से ज्यादा बच्चे असाक्षर ही बने रहते हैं।
लाखों युवाओं की जिंदगी में इस 'सशक्तीकरण' शब्द को सच्चे अर्थों में चरितार्थ करने के लिए यह जरूरी है कि इन बाधाओं को दूर किया जाए। लेकिन यह कैसे होगा, इस पर साफ तौर पर राहुल गांधी कुछ नहीं बोलते। ध्यान देने वाली बात है कि केवल यूएन रिपोर्ट ही भारत के भविष्य को सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण मुद्दों की बात नहीं करती। एनजीओ 'प्रथम' हर वर्ष भारत में शिक्षा की हालत पर एक रिपोर्ट तैयार करता है। क्या गांवों में बच्चे स्कूल जाते हैं?, क्या वे पढ़ने में सक्षम हैं? और क्या वे गणित के बुनियादी सवालों को हल कर पाते हैं? इन सभी सवालों के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की जाती है।
2013 की 'प्रथम' की रिपोर्ट में देश के 550 जिलों का अध्ययन किया गया। इसमें से उत्तर प्रदेश के 69 जिले हैं। इस सर्वे में कुल 1,945 स्कूल और 93,272 बच्चों को कवर किया गया। इस रिपोर्ट से जुड़े अजीत सोलंकी के मुताबिक पिछले पांच वर्षों के दौरान ग्रामीण उत्तर प्रदेश में प्राइवेट स्कूलों में दाखिला लेने वाले 6 से 14 वर्ष के बच्चों का प्रतिशत तेजी से बढ़ा है और वर्तमान में प्रदेश के तकरीबन आधे बच्चे प्राइवेट स्कूलों में पंजीकृत हैं।
हालांकि यहां 11 से 14 आयुवर्ग की हर दस में से एक लड़की अभी भी स्कूल से दूर है। अगर राजस्थान को छोड़ दें, तो इस मामले में उत्तर प्रदेश कई दूसरे राज्यों से पिछड़ा हुआ है। स्कूलों में उपस्थिति के आंकड़ों के मामले में भी उत्तर प्रदेश देश के सबसे पिछड़े राज्यों में से है। इसके अलावा प्रदेश में तीसरी कक्षा के तकरीबन 14.1 प्रतिशत और पांचवीं कक्षा के लगभग 16.7 प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा की किताबें भी पढ़ पाने में सक्षम नहीं हैं। लड़कियों की हालत तो और भी निराशाजनक है। उन्हें स्कूलों में शौचालय के अभाव की समस्या से भी जूझना पड़ता है। 'प्रथम' की टीम ने 2013 में एक सर्वे किया, जिसके मुताबिक ग्रामीण उत्तर प्रदेश के केवल 44 प्रतिशत स्कूलों में ही लड़कियों के लिए शौचालय की उपयुक्त व्यवस्था थी।
साफ है कि बुनियादी शिक्षा और कौशल का अभाव देश में प्रगति और समानता के माहौल के लिए बेहद खतरनाक है। अगर इस दिशा में तुरंत कदम नहीं उठाए गए, तो बहुत से बच्चों के लिए 'सशक्तीकरण' एक सपना बन कर ही रह जाएगा।
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