महत्मा बुद्घ के जीवन की एक प्रेरक कथा
एक बार भगवान बुद्ध एक वृक्ष के नीचे एकाग्रचित्त बैठे हुए थे। उनसे द्वेष रखने वाला एक कुटिल व्यक्ति उधर से गुजरा। उसने वृक्ष के पास खड़े होकर बुद्ध के प्रति अपशब्दों का उच्चारण किया। बुद्ध मौन रहे। उन्हें शांत देखकर वह वापस लौट आया। रास्ते में उसकी अंतरात्मा ने उसे धिक्कारा कि एक शांत बैठे साधु को गाली देने से क्या मिला?
वह दूसरे दिन फिर से बुद्ध के पास पहुंचा। हाथ जोड़कर बोला, मैं कल अपने द्वारा किए गए व्यवहार के लिए क्षमा मांगता हूं।
बुद्ध ने कहा, मैं कल जो था, आज वैसा नहीं हूं। तुम भी वैसे नहीं हो, क्योंकि जीवन प्रतिपल बीत रहा है। नदी के एक ही पानी में दोबारा नहीं उतरा जा सकता। जब वापस उतरते हैं, तो वह पानी बहकर आगे चला जाता है।
तुमने कल क्या कहा, मुझे नहीं मालूम, और जब मैंने कुछ सुना ही नहीं, तो ये शब्द तुम्हारे पास वापस लौट गए। बुद्ध के शब्दों ने उसे सहज ही वाणी के संयम का महत्व बता दिया।
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