Loading

18 February 2014

काश, उन्होंने थोड़ा इतिहास पढ़ा होता

Kejriwal poor history knowledge
तवलीन सिंह
अरविंद केजरीवाल को समझना है, तो उनके तमाशों पर न जाएं। उनकी किताब स्वराज पढ़ें। मैंने पिछले हफ्ते यह किताब पढ़ी। सच तो यह है कि इस किताब के बारे में मैं जानती तक नहीं थी। जानकारी मिली मुझे इंडियन एक्सप्रेस के संपादक शेखर गुप्ता के एक लेख से। लेख पढ़ने के बाद मैंने किताब खरीदी और उसे ध्यान से पढ़ा। पढ़ने के बाद मुझे यकीन हो गया कि केजरीवाल साहिब या तो आर्थिक या राजनीतिक मामलों में बिल्कुल नादान हैं या उन्होंने जान-बूझकर अपने राजनीतिक जीवन की इमारत कई झूठों पर खड़ी की है।

केजरीवाल साहिब लिखते हैं कि भारत की स्वाधीनता और धन पर कब्जा कर चुकी हैं विदेशी कंपनियां और विदेशी शक्तियां। यह बात साबित करने के लिए उदाहरण देते हैं अमेरिका के साथ भारत सरकार के परमाणु समझौते और भोपाल गैस त्रासदी का। दोनों मामलों में दूर-दूर का रिश्ता नहीं है। भोपाल में पीड़ितों को मुआवजा नहीं मिला, तो भारत सरकार की लापरवाही के कारण। परमाणु समझौते की बात और है। यहां हमारी सरकार ने देश के हित में काम किया, क्योंकि इस समझौते से भारत को एक परमाणु शक्ति का दर्जा मिला। इस पर ऐतराज किया था पाकिस्तान ने और अमेरिका से शिकायत की कि उसने अपने सबसे वफादार दोस्त के साथ बेवफाई की है। इसके बावजूद अमेरिका ने उसके साथ परमाणु समझौता नहीं किया। अमेरिका ने स्पष्ट किया कि पाकिस्तान इसके लायक नहीं है, क्योंकि उसने अपनी परमाणु जानकारी अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचने की कोशिश की है। शायद उस समय इन बातों के बारे में केजरीवाल साहिब जानते नहीं थे, क्योंकि उस समय वह समाज सेवक थे, राजनेता नहीं। राजनीति में आने से पहले थोड़ा-सा इतिहास पढ़ लिया होता उन्होंने, तो अच्छा रहता।

केजरीवाल की आर्थिक सोच की बुनियाद यह है कि भारत के उद्योगपतियों में ईमानदारी का अभाव है और उनके हाथों में सौंप दी हैं भ्रष्ट अधिकारियों ने देश के वन, नदियां और खदानें। जबकि सच यह है कि इन चीजों पर शिकंजा रहा है सरकारी अधिकारियों का, राजनेताओं का। इसका इन्होंने दुरुपयोग ऐसा किया है कि शायद ही कोई नदी बची है इस बदकिस्मत देश में जो प्रदूषित नहीं हो चुकी है। गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों की सफाई करने के लिए आवाज उठाई महंतों ने, हिंदू संगठनों ने, उद्योगपतियों और बुद्धिजीवियों ने, पर इन नदियों को साफ करने का काम सरकारी अधिकारियों ने अपने हाथों में रखा।

जंगलों को तबाह किया सरकारी अधिकारियों ने, और अगर कोयले की कुछ खदानें सौंपी गई उद्योगपतियों को, तो इसलिए कि सरकारी अधिकारियों ने इन खदानों को बर्बाद करने का काम किया है। ऐसा नहीं है कि केजरीवाल साहिब जानते नहीं हैं कि सरकारी महकमों में कितना भ्रष्टाचार है। लेकिन सुझाव उनका क्या है? इन्हीं के हाथों में रहना चाहिए देश का धन और इन पर निगरानी रखेंगे लोकपाल साहिब। क्या भ्रष्टाचार रोकने के लिए कानून कम हैं इस देश में? क्या अदालतें नहीं हैं? समस्या यह है कि इस देश की कानून-व्यवस्था बैलगाड़ी की रफ्तार से चलती है। लोकपाल भी तो इसी रफ्तार से चलेंगे न? केजरीवाल की राजनीतिक सोच का आधार यह है कि ग्राम सभाओं को पूरा अधिकार मिलना चाहिए कानून बनाने का और विकास के कार्य करने का। उनकी इस बात से मैं सहमत हूं। लोकतंत्र की जड़ें यदि मजबूत करनी है, तो पंचायतों को मिलने चाहिए टैक्स वसूलने का अधिकार, गांवों के विकास में दखल देने के पूरे अधिकार। लेकिन शहरी मध्यवर्गीय केजरीवाल कुछ ज्यादा ही भरोसा करते हैं देश के देहाती आम आदमी में। भूल जाते हैं शायद कि अगर इन पर नियंत्रण न हो कुछ हद तक राज्य और केंद्र सरकारों का, तो वही जातिवाद पनप सकता है, जिसने सदियों से दलितों और छोटी जातियों को बुनियादी इन्सानी हक तक नहीं दिए थे।

केजरीवाल साहिब अगर कॉलेज के विद्यार्थी होते और यह किताब लिखते, तो यह लेखिका उनकी तारीफ करती। लेकिन वह विद्यार्थी नहीं हैं। वह जनलोकपाल विधेयक पेश करने की जिद में मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ चुके हैं और खुद को इस तरह पेश कर रहे हैं, मानो भ्रष्टाचार मिटाकर ही दम लेंगे। ऐसी किताब लिखने से पहले अगर उन्होंने इतिहास पढ़ लिया होता, तो उनकी बातों में वजन ज्यादा होता।

No comments:

Post a Comment