उच्च शिक्षा के साथ मजाक कब तक
राष्ट्रपति
ने बीते वर्ष अपने विभिन्न दीक्षांत भाषणों में इस बात पर विशेष चिंता
व्यक्त की थी, कि इतने बड़े राष्ट्र में किसी एक विश्वविद्यालय की भी गणना
विश्व के प्रमुख 200 विश्वविद्यालयों में नहीं की जाती। प्रधानमंत्री भी
इसी बात को दोहरा रहे हैं। आजादी के बाद हम किसी एक भी ऐसे भारतीय को जन्म
नहीं दे सके, जिसने भारत की ही संस्थाओं में कार्य करते हुए नोबल पुरस्कार
प्राप्त किया हो, जबकि 1913 में भारत के रवींद्रनाथ ठाकुर नोबल पुरस्कार
प्राप्त करने वाले प्रथम गैर यूरोपीय व्यक्ति थे। वर्ष 1930 में वैज्ञानिक
सी वी रमण को भारतीय संस्थानों में ही कार्य करते हुए नोबल पुरस्कार से
सम्मानित किया गया था। उनके अतिरिक्त जगदीश चंद्र बसु, मेघनाथ साहा, सत्येन
बोस, जदुनाथ सरकार, सुनीति कुमार चटर्जी एवं डॉ राधाकृष्णन जैसे अनेक
विद्वानों के नाम गिनाए जा सकते हैं, जिनकी विश्व में प्रतिष्ठा किसी नोबल
पुरस्कार विजेता से कम नहीं थी।
आज स्थिति
पूरी तरह बदल गई है। नोबल पुरस्कार और विश्व स्तर के विश्वविद्यालय बनना तो
बहुत दूर की बात है, जमीनी स्थिति यह है कि शोध के नाम पर इस समय जो कुछ
यहां चल रहा है, वह राष्ट्र को शर्मसार कर देता है। जब उच्च शिक्षा की
गुणवत्ता की चर्चा की जाती है, तो हमारा ध्यान केवल आईआईटी, आईआईएम, कुछ
शोध संस्थानों और कुछ गिने-चुने केंद्रीय विश्वविद्यालयों के आगे नहीं
बढ़ता। देश में इस समय 400 से अधिक विश्वविद्यालय और 20,000 के आसपास
महाविद्यालय हैं। सभी विश्वविद्यालय तथा अधिकांश पोस्ट ग्रेजुएट
महाविद्यालयों में विद्यार्थी शोध के लिए कार्य करते हैं, जबकि 90 प्रतिशत
उच्च शिक्षा केंद्रों में शोध के लिए बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं। क्या
इसकी सुध लेने वाला कोई है? बाजार की संस्कृति ने शिक्षक का ऐसा समुदाय
पैदा कर दिया है, जो शोध में प्रवेश करवाने, शोध लिखने आदि की पूरी
जिम्मेदारी स्वयं लेकर पैसे बटोर रहा है। ऐसे शिक्षकों की संख्या अधिक नहीं
होगी, पर इनके कार्यों से संपूर्ण शिक्षक समाज कलंकित हो रहा है।
स्थिति
बिगड़ने का ही यह परिणाम है कि उत्तर प्रदेश राज्य सरकार के अधीन अधिकांश
विश्वविद्यालयों ने यह आवश्यक समझा कि जो कुछ इस समय हो रहा है, उसे रोकने
का एक ही उपाय है, कि फिलहाल शोध डिग्रियों में प्रवेश बंद कर गुणवत्ता
लाने के लिए नए नियम बनाए जाएं। लगभग चार-पांच वर्षों से इन
विश्वविद्यालयों में प्रवेश रुका हुआ है। उत्तर प्रदेश सहित अनेक राज्यों
में सेवानिवृत्त अध्यापकों के रिक्त स्थानों को नहीं भरा जा रहा है। उच्च
शिक्षा के प्रति राज्य सरकारों की इतनी बेरुखी क्यों? कहने को छठे वेतन
आयोग ने शिक्षकों का वेतन और सुविधाएं बढ़ाई हैं। प्रोफेसरों को एक लाख
रुपये से भी अधिक मिल रहा है। पर आपको यह जानकर आश्चर्यचकित नहीं होना
चाहिए, कि उच्च शिक्षा में आज शिक्षण कार्य इनके बल पर नहीं चल रहा है।
उच्च शिक्षा आज उन शिक्षकों के बल पर चल रही है, जिनका मासिक वेतन मात्र
पांच से बारह हजार के भीतर है। स्ववित्तपोषित निजी संस्थाओं की स्थिति तो
और भी अधिक बदतर है। कुछ ऐसे शिक्षक भी हैं, जो पिछले 20 वर्षों से कार्य
कर रहे हैं। आयु भी 50 वर्ष से ऊपर हो चुकी है। डॉक्टरेट की डिग्री है और
नेट भी उत्तीर्ण हैं, पर वेतन मात्र वही आठ से दस हजार के बीच। आखिर क्या
थी उनकी मजबूरी। एक दैनिक मजदूर के बराबर आय। ऊपर से प्रबंधकों की जी
हुजूरी की मानसिक यातना। जैसा परिदृश्य आज है, क्या उसे देखकर 21वीं
शताब्दी का एक मेधावी नवयुवक उच्च शिक्षा को अपना व्यवसाय चुनने के लिए
उत्साहित हो सकता है?
विश्वविद्यालयों से
आशा की जाती है कि वे समाज को नई रोशनी देकर परिवर्तन को जन्म देंगे, पर हो
रहा है ठीक उल्टा। देने के बजाय, जो कुछ गंदा समाज और राजनीति में व्याप्त
है, हमारे परिसर उसे ग्रहण कर रहे हैं। भारत यदि ताकतवर देशों के समक्ष एक
चुनौती बनकर खड़ा होना चाहता है, तो उसे उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सशक्त
बनना ही होगा, अन्यथा हम भारत को महान बनाने की आशा छोड़ दें।
उच्च शिक्षा आज उन शिक्षकों के बल पर चल रही है, जिनका वेतन मात्र पांच से बारह हजार रुपये है।
शिक्षा व्यवस्था
उदय प्रकाश अरोड़ा
edit@amarujala.com
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