मनमोहन जो नहीं कर सके
हालांकि तकरीबन सवा घंटे चली इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्हें 42 सवालों का सामना करना पड़ा। लेकिन इस दौरान प्रधानमंत्री पूरे विश्वास के साथ देश की खस्ता हालत की वजह बताने में असमर्थ रहे। बावजूद इसके कि संप्रग के पास क्षमता या अनुभव की कोई कमी नहीं थी। इसमें शामिल तीन मंत्री पिछले तीस वर्षों में कुल 20 बजट पेश कर चुके हैं। इतना ही नहीं, नौ पूर्व मुख्यमंत्री संप्रग के पिछले दो कार्यकालों में उसकी कैबिनेट का हिस्सा रह चुके हैं। फिर भी कुल मिलाकर संप्रग का कार्यकाल ऐसा नहीं रहा, जिस पर कांग्रेस इठला सके।
संप्रग के शासन के पिछले दस वर्षों में आम आदमी की चिंताओं को लेकर किस कदर लापरवाही बरती गई है, यह समझना मुश्किल नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि सरकार आम आदमी की तकलीफों से अनजान रही हो। बीते एक दशक में प्रधानमंत्री ने कुल 1,369 भाषण दिए, जिनमें 500 से ज्यादा बार उन्होंने आधारभूत ढांचे से जुड़ी समस्याओं का जिक्र किया। इसी दशक के दौरान भारत की शहरी जनसंख्या में तकरीबन दस करोड़ का इजाफा हुआ। देश के नगरीय इलाकों में साढ़े सैंतीस करोड़ से ज्यादा लोग बेहद अनियोजित ढंग से विकसित स्थानों में रह रहे हैं।
इतना ही नहीं, इनमें से करीब सात करोड़ लोग (फ्रांस की कुल जनसंख्या के बराबर) तो झुग्गियों में रहने को मजबूर हैं। इससे निपटने के लिए संप्रग ने 2005 में बड़े जोर-शोर से जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीकरण मिशन की शुरुआत की थी। उस समय सरकार ने 62,253 करोड़ रुपये की 554 परियोजनाओं को मंजूरी भी दी थी, जिन्हें 2012 में पूरा होना था। पर 2014 तक इनमें से केवल 146 ही पूरे हो सके हैं।� मजे की बात है कि इसमें सबसे फिसड्डी राज्य कांग्रेस शासित दिल्ली और महाराष्ट्र रहे हैं। हालत का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि वित्त मंत्री तक को यह कहना पड़ा कि 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) के दौरान बुनियादी संरचना से जुड़े सभी प्रमुख लक्ष्यों को पूरा करने में सरकार नाकाम रही है।
वाजपेयी सरकार के कार्यकाल के अंत में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) विकास दर 8.5 प्रतिशत थी। बावजूद इसके, पहले तीन वर्षों में जीडीपी की विकास दर को नौ प्रतिशत तक ले जाने का श्रेय संप्रग को मिलना चाहिए। पर बात अतीत की नहीं है, सवाल तो भविष्य की संभावनाओं पर खड़े हैं। बढ़ती महंगाई और रुकी हई परियोजनाएं विकास की राह में रोड़ा बनी हुई हैं।
हालांकि प्रधानमंत्री के भाषणों में कुल 88 बार महंगाई का जिक्र आया, पर हुआ कुछ नहीं। प्रधानमंत्री का तर्क है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कीमतों में बढोतरी की वजह से उनके हाथ बंधे हुए हैं। ईंधन के दामों में बढ़ोतरी को लेकर प्रधानमंत्री का तर्क समझा जा सकता है, लेकिन खाद्य मूल्यों में वृद्धि को समझना मुश्किल है। पिछले पांच वर्षों में खाद्य पदार्थों की महंगाई दर 10 प्रतिशत से ज्यादा रही है।
आंतरिक सुरक्षा की बात करें, तो आतंकवादियों और माओवादियों का खतरा लगातार सिर उठा रहा है। प्रधानमंत्री खुद माओवादी हिंसा को आंतरिक सुरक्षा के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती बताते आए हैं। छत्तीसगढ़ में सरकारी व्यवस्था का मखौल उड़ाते हुए जिस तरह सुरक्षा बलों पर बार-बार माओवादी हमले हुए हैं, आश्चर्य यह है कि प्रधानमंत्री ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में इन समस्याओं का उल्लेख करना तक जरूरी नहीं समझा।
प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान यात्रा की अधूरी रह गई इच्छा का जिक्र तो किया, लेकिन पाकिस्तान को सबक सिखाने में नाकाम रहने पर खेद जैसी कोई भावना नहीं दिखाई। मुंबई हमले के पांच वर्ष बीत जाने के बावजूद दोषियों को लेकर भारत अब तक पाकिस्तान पर जरूरी दबाव नहीं बना पाया है। इसके अलावा आतंकवादी धमकियों से निपटने के लिए पी. चिदंबरम ने जो तीन-सूत्री रणनीति सुझाई थी, वह भी राजनीतिक आलस की भेंट चढ़ गई।� दुर्भाग्य यह भी है कि पाकिस्तान, चीन और अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते 2004 की तुलना में खराब ही हुए हैं।
दरअसल दिक्कत यह है कि संप्रग ने योजनाओं के प्रचार को जमीनी स्तर पर उनके क्रियान्वयन से ज्यादा महत्व दिया। बार-बार यह कहा गया कि विकास से ज्यादा जरूरी समावेशी विकास है। यह सच है कि संप्रग ने राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, मनरेगा, शिक्षा का अधिकार जैसी कई योजनाओं की शुरुआत की। इसके अलावा केंद्र और राज्यों के बीच सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं पर हर वर्ष छह लाख करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च हुआ। लेकिन इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक में भारत की रैंकिंग 127 से 136 पर खिसक गई।
यह देखते हुए कि नेहरू और इंदिरा के बाद मनमोहन सिंह देश के एकमात्र प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने लगातार दो कार्यकाल पूरे किए, कहा जा सकता है कि कुछ बेहतर करने का एक अच्छा मौका उन्होंने खो दिया है। परमाणु समझौते को वह सबसे महत्वपूर्ण क्षण बताते हैं। शायद वह सही हैं, क्योंकि इसके बाद लगातार यह संदेश दिया जाता रहा कि वह चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री पद पर जमे रहने के पीछे उनकी क्या मजबूरी थी, यह सवाल जरूर इतिहासविदों और खुद मनमोहन सिंह को कचोटता रहेगा।
शंकर अय्यर अर्थशास्त्र की राजनीति के विशेषज्ञ और एक्सीडेंटल इंडिया के लेखक हैं।
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