समानांतर जैसे शब्दों से मैं सहमत नहीं
श्याम बेनेगल
जाने-माने फिल्मकार
दिल से
हज बॉक्स ऑफिस पर मिली सफलता के आधार पर यह कहना कि फिल्म अच्छी है, हमेशा
सही नहीं होता। लोकप्रियता का मतलब यह नहीं है कि फिल्म भी अच्छी ही होगी।
कोई डायरेक्टर अपनी फिल्म से क्या चाहता है। यह बेहद महत्वपूर्ण होता है।
अगर वो हर कीमत पर फिल्म को लोकप्रिय बनाकर खुद को सफल मानता है, तो वह एक
अलग तरह की फिल्म बनाएगा। दूसरी ओर ऐसे भी निर्देशक हैं, जो सिनेमा को
यथार्थ से जोड़कर पेश करते हैं। ऐसे फिल्ममेकर्स के लिए लोकप्रियता बहुत
मायने नहीं रखती। करीब 4 दशक पहले की फिल्मों का दर्शक वर्ग बेहद सीमित था,
लेकिन आज दर्शकों की संख्या कई गुना बढ़ चुकी है। हर तरह के दर्शकों के
लिए फिल्में बन रही हैं। कई बार फिल्म अच्छी होती है, लेकिन उसमें नामचीन
कलाकार न हों, तो वह चल नहीं पाती। बडे़ स्टार्स की फिल्मों में भूमिका
काफी अहम होती है। कई मायनों में बडे़ स्टार्स एक मैगनेट की तरह होते हैं,
जिनकी ओर दर्शक खिंचे चले आते हैं। विषयवस्तु अगर दर्शकों की पसंद की न भी
हो, तो बडे़ स्टार्स की वजह से दर्शक खिंचे चले आते हैं। डिस्लेक्सिया जैसी
बीमारी को भला कौन जानता था? ‘तारे जमीं पर’ फिल्म में जब आमिर खान ने इसे
नए अंदाज में पेश किया, तो दर्शकों ने खूब पसंद किया। यह एक स्टार एक्टर
का ही जादू था। स्मिता पाटिल या फिर शबाना आजमी जैसे स्टार्स जब यथार्थवादी
विषयों को अपनी फिल्मों में पेश करते थे, तो उस दौर में भी दर्शकों की कमी
नहीं होती थी। धूम-3 जैसी फिल्म अब अगर 500 करोड़ के क्लब में शामिल हो
रही है, तो इसके पीछे स्टार्स का आकर्षण भी है। एक सच यह भी है कि आज
ज्यादातर फिल्म कलाकार अपनी स्टार इमेज का इस्तेमाल इस तरह के गंभीर विषयों
के प्रमोशन के लिए कम ही करते हैं। लोग मुझे समानांतर सिनेमा का जनक कहते
हैं। असल में किसी ने अपनी सहूलियत के लिए ‘समानांतर सिनेमा’ शब्द गढ़ा
है। इसे इस रूप में दिखाया जाता है कि ये मुख्य सिनेमा से हटकर है। या फिर
ये बताने की कोशिश होती है कि इस तरह की फिल्मों से मनोरंजन नहीं होता।
मैं इस तरह के शब्दों से कभी सहमत नहीं रहा। हर निर्माता अपने तरीके से
फिल्म बनाता है। मुझे लगता था कि आम तौर पर जो भी फिल्म बनती थी, वो एक ही
ढर्रे पर थी और कुछ इसमें अलग करने का स्कोप नहीं था। मुझे इस बात की खुशी
है कि मैं दूरदर्शन के लिए ‘संविधान’ जैसी फिल्म बना रहा हूं। इसमें सचिन
खेडेकर, दिव्या दत्ता, ईला अरुण, दीलीप ताहिल और शमा जैदी जैसे कलाकार
दिखाई देंगे। प्रसारण राज्यसभा टीवी पर किया जाना है। कई लोगों के मन में
सवाल होगा कि संविधान जैसे विषय पर बनने वाली फिल्म को भला कौन पसंद करेगा?
लेकिन ऐसा सोचना सही नहीं है। इस तरह की फिल्में मुनाफे के लिए नहीं बनाई
जाती। अच्छी बात यह है कि दूरदर्शन इस तरह की फिल्मों के लिए बिना मुनाफे
की चाहत के खर्च वहन कर सकता है। दरअसल यह फिल्म सिर्फ वर्तमान पीढ़ी को
ध्यान में रखकर नहीं बनाई जा रही है। यह फिल्म एक ऐतिहासिक दस्तावेज है, जो
सभी के लिए है। मैं 2014 के लिए फिल्म नहीं बना रहा, बल्कि इसकी
प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी। संविधान एक तरह से बाईबिल है, जिसे हम जीते
हैं। इसलिए मैंने इस पर फिल्म बनाने का फैसला किया। काफी पहले दूरदर्शन के
लिए बनाया गया ‘भारत एक खोज’ भी इसी तरह का एक टीवी सीरियल था। 53 एपिसोड
का यह सीरियल जवाहर लाल नेहरु की किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ पर आधारित था।
इस तरह का काम लंबे समय तक जीवित रहता है। फिल्मों की गुणवत्ता की बात
करें, तो भारतीय सिनेमा के सौ साल के सफर में बहुत सी शानदार फिल्में आई
हैं। क्षेत्रीय भाषाओं में भी अच्छी फिल्में बनी हैं। संत तुकाराम और
रामशास्त्री जैसी मराठी फिल्मों को मैं खुद बेहद पसंद करता हूं। 1930 के
दौर में ये फिल्में वास्तविक अंदाज में बनाई गई थीं, लेकिन वक्त के साथ मूल
रूप से इसमें काफी विकृति आई है। फिल्ममेकर्स अगर अपना रवैया बदलें, तो
सिनेमा का परिवेश बदल सकता है। भारतीय निर्देशकों को सिर्फ भारतीय दर्शकों
तक खुद को सीमित रखने की सोच से ऊपर उठना होगा। फिल्में अगर विस्तृत
परिप्रेक्ष्य और सोच के साथ बनेंगी, तो उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता
मिलती है। मैंने जो महसूस किया है देखा है, उसी को अपनी फिल्मों में दिखाया
है। आज के दौर में अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज जैसे निर्देशक अच्छी
फिल्में बना रहे हैं। शिमित अमीन, नीरज पांडे, नागेश कोकूनूर, निशिकांत
कामत भी काफी अच्छे निर्देशक हैं। ऋतुपर्णो घोष हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन
उनकी फिल्मों को खूब सराहा जाता है।
फिल्में
अगर विस्तृत परिप्रेक्ष्य और सोच के साथ बनेंगी, तो उसे अंतरराष्ट्रीय
स्तर पर मान्यता मिलती है। मैंने जो महसूस किया है देखा है, उसी को अपनी
फिल्मों में दिखाया है।
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