जिस घर में मानुष गंध न हो
Posted On January - 11 - 2014
एक समय उषा प्रियंवदा के उपन्यास ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’ की धूम मची थी। फिर वैसी ही धूम मची नासिरा शर्मा के उपन्यास ‘शाल्मली’ की, जिसने उन्हें भी अलग तरह के कथा व्यक्तित्व की पहचान दे दी, कुछ वैसे ही, जैसे ‘आवां’ ने चित्रा मुद्ïगल और ‘कथा सतीसर’ ने चंद्रकांता का अलग व्यक्तित्व गढ़ा, लेकिन नासिरा शर्मा की ‘शाल्मली’ के साथ तो ममता कालिया के ‘बेघर’ को ही रखना पड़ेगा, जो उससे पहले चर्चित हुआ था, उषा प्रियंवदा के ‘पचपन खंभे लाल दीवारें’ के आस-पास। अपने समय की महत्वपूर्ण रचनाकार नासिरा शर्मा ने शायद इसीलिए नए तरीके से चुपचाप काम करते हुए स्वतंत्र रचनाकार का अपना रूप गढ़ा। ‘शामी कागज’, ‘इब्ने मरियम’, ‘संगसार’ तथा ‘पत्थर गली’ जैसे नौ कहानी संग्रहों और ‘सात नदियांं : एक समंदर’ जैसे उपन्यास के बाद ‘शाल्मली’ ने सबका ध्यान आकृष्टï किया था। बाद में ‘जिंदा मुहावरे’, ‘पारिजात’, ‘अक्षय वट’, ‘कुइयां जान’, ‘जीरो रोड’ और ‘ठीकरे की मंगनी’ जैसे उपन्यास लिखकर नासिरा ने समकालीन स्त्री विमर्श को एक नई दीप्ति से भर दिया। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से महात्मा गांधी सम्मान हासिल करने वाली नासिरा शर्मा को पिछले दिनों भोपाल से ‘स्पंदन कथा शिखर सम्मान’ मिला और इन दिनों उनका उपन्यास ‘अजनबी जजीरा’ चर्चा में है।
अपने उपन्यास ‘शाल्मली’ में नासिरा ने न सिर्फ स्वातंत्र्योत्तर भारत की स्त्री की दमदार छवि गढ़ी है, बल्कि इसमें उन्होंने वरिष्ठï रचनाकारों से एकदम अलग वह जमीन भी तैयार की, जिस पर बाद में नये लोगों ने अपने स्थापत्य के महल खड़े किए। आधुनिकता और प्रगतिशीलता को सहजता से आत्मसात करते हुए उन्होंने ‘शाल्मली’ में जिस भारतीयता को पेश किया, शायद वही है समकालीन भारतीय मनुष्य का प्रतिनिधि रूप और वही है स्वातंत्र्योत्तर भारत की स्त्री का यथार्थबोध, उसका जीवन दर्शन, जिसे नये भारत की स्त्री की अपनी सेंसिबिलिटी भी कह सकते हैं। नासिरा ने ‘शाल्मली’ के जरिये स्वतंत्रता के बाद पैदा हुई आधुनिक और प्रगतिशील भारतीय स्त्री की संवेदनाओं, सरोकारों, मूल्यों, जीवन दर्शन और उसकी सार्वजनीन करुणा का जैसे नया काव्य ही रच दिया है। कैसी मिट्टïी से उपजी शाल्मली, कैसे खाद-पानी से पली-बढ़ी और किस लकड़हारे की कुल्हाड़ी का शिकार होकर जलते हुए किनके लिए आंच बनी और किनकी आंख का अंजन, इस सब का अत्यंत मोहक चित्रण करते हुए नासिरा ने नायिका के नाम पर ही उपन्यास को ‘शाल्मली’ नाम देकर शायद ठीक ही किया है।
शाल्मली मां-बाप को तो प्राणों से प्यारी है ही, सास भी बेटे की बजाय शाल्मली पर ही जान छिड़कती है क्योंकि वह निश्छल मन से सबकी सेवा करती रहती है, लेकिन पति ही वैसा स्वार्थी और कामी निकल गया तो शाल्मली क्या करे? पति किसी और स्त्री में खो गया तो क्या शाल्मली भी किसी और की बाहों का सहारा ले ले? नहीं, शाल्मली का जन्म ऐसी मिट्टïी से नहीं हुआ। अग्नि के समक्ष जीवन भर पति के मान-सम्मान की रक्षा करने की जो कसम उसने खायी थी, उसे वह यों ही तो नहीं तोड़ सकती। अपने प्रति, अपने कहे हुए शब्दों के प्रति जो आस्था उसमें है, उसे कैसे डिगने दे। पति डिग गया, यह उसकी कमी-कमजोरी है। जो गलती पति ने की, शाल्मली वही गलती क्यों करे? जिस तरह पति स्वार्थी निकल गया, शाल्मली क्यों बने वैसी! जिन कुंठाओं से घिरता गया नरेश, शाल्मली क्यों घिरे उन्हीं कुंठाओं में। पति के जिन कर्मों को वह श्रेयस्कर नहीं समझती, खुद क्यों वैसे कर्माें का विचार भी करे। सो, समष्टिï से जोड़कर शाल्मली ने खुद को पाठकों की धुंधलाई आंखों का अंजन बनाने की कोशिश की। अपने मां-बाप तथा सास के लिए वह निरंतर प्यार और स्नेह की पात्र बनी रही, लेकिन किसी और से जुड़े नरेश को कैसे दे सकती है।
शाल्मली की दृष्टिï में स्वावलंबी होने का अर्थ यह बिल्कुल नहीं कि वह अपने परिवार को तोड़ डाले और उन भावनाओं से मुकर जाए, जो व्यक्ति की पहचान ही नहीं, जरूरत भी हैं। यह भी सही है कि सहज और सुंदर प्रेम अभिव्यक्ति मर्द के साथ ही औरत कर सकती है, मगर प्रश्न तो उससे भी जटिल है कि आज की औरत भूख लगने पर आंख बंद करके किसी भी तरह की रोटी खा नहीं सकती और वासना भर के लिए कैसे भी मर्द के सामने घुटने नहीं टेक सकती। आज उसकी स्थिति बदली है। अब वह अपनी पसंद का जीवन साथी चाहती है। अपने पेशे और प्रेमी का चुनाव खुद करना चाहती है क्योंकि आज उसकी मानसिक जरूरतें भी रोटी की तरह ही महत्वपूर्ण हो गई हैं।
ऐसी स्वतंत्र स्त्री है शाल्मली, जो पारंपरिक रूढिय़ों से तो मुक्त है, पर वह किसी भी तरह की अति में नहीं जीना चाहती। वह कहती है कि मेरा विश्वास न घर छोडऩे में है, न ही उसे तोडऩे में, न आत्महत्या करने में और न ही अपने को किसी एक के लिए स्वाहा कर देने की अति में। मैं तो घर के साथ-साथ औरत के अधिकार की कल्पना भी करती हूं और विश्वास की भी। अधिकार पाना, लेकिन ‘घर निकाला’ नहीं और घर बनाए रखने का अर्थ ‘सम्मान’ को कुचल फेंकना नहीं है। यह जो हमारे मन-मस्तिष्क मेें अति का भूत घुसा हुआ है, वह हमारे परिवारोंेें में पति-पत्नी संबंधों को तोड़े डाल रहा है। इसका कारण शिक्षा पद्धति को मानते हुए शाल्मली कहती है कि उस शिक्षा का क्या लाभ, जो हमारी सृजन शक्ति को ही समाप्त किए दे रही है। मानवीय संबंधों के लिए समय निकालना आज समय का दुरुपयोग क्यों लगने लगा है? ऑफिस, घर और हर स्थान पर दूसरे को समझने की चेष्टïा करने के बजाय उस पर खुद को थोपने का जोर क्यों बढ़ रहा है? दूसरे को हम अपना दर्पण क्यों समझ लेते हैं? छाया दिखी तो ठीक, वरना दर्पण उतारकर पटक दिया। शाल्मली से पति के चुनाव में गलती जरूर हुई, पर वह किसी भावुकता के कारण नहीं हुई, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि शाल्मली कभी भावना में बहती ही न हो, स्थितियां होने पर वह भावनाओं में बहती है और खूब बहती है, लेकिन विवेकच्युत कभी नहीं होती। कुंठित और स्वार्थी पति को भी समष्टिï का ही एक हिस्सा मानकर उसके प्रति भी करुणामयी हो शाल्मली प्रतिदिन उसका स्वागत पति की तरह नहीं, अतिथि की तरह करती है। पति के रूप में न सही, अतिथि के रूप में पति को भी औरों की नजर में गिरने नहीं देती। ऐसी सकारात्मक सोच की स्त्री को पाठकों की नजर में बहुत ऊपर उठा देने वाली कथाकार के रूप में नासिरा शर्मा ने एक बार अपना अलग व्यक्तित्व गढ़ा तो फिर ‘कुइयां जान’ जैसे उपन्यासों से उसे और-और मजबूत करती चली गई, और आज प्रथम पंक्ति के स्त्री रचनाकारों में उनकी एक अलग पहचान है।
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