महर्षि व्यास ने क्यों कहा, उस देश और समाज का विनाश हो जाता है
यही कारण है कि जिन महापुरुषों ने अपने समय और समाज की महत्वपूर्ण सेवा की उन्होंने किसी भी काम को छोटा बड़ा नहीं समझा। यहां तक कि उन कामों को भी वरीयता दी, जिन्हें करने में सामान्य लोग अपनी हेठी समझते थे।
साधक या जनसेवक अगर बड़प्पन की आकांक्षा ले कर साथियों को पीछे धकेलेंगे, अपना चेहरा चमकाने के लिए प्रतिद्वन्द्विता खड़ी करेंगे तो अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेंगे और उस उद्देश्य को भी नष्ट भ्रष्ट कर देंगे जिसके लिए वे काम कर रहे हैं।
भगवान कृष्ण ने महाभारत के उपरान्त हुए राजसूय यज्ञ में आग्रहपूर्वक आगन्तुकों के पैर धोने का काम अपने जिम्मे लिया था। राम भरत में से दोनों ने राज तिलक की गेंद दूसरे की ओर लुढकाने में कोर कसर न रहने दी। राजा जनक हल जोतते थे।
नहुष ने ऋषियों को पालकी में जोता और सर्प बनने का शाप ओढ़ने को विवश हुए। चाणक्य झोपड़ी में रहते थे ताकि राजमद उनके ऊपर न चढ़े और किसी साथी के मन में प्रधानमत्री का ठाट बाट देखकर वैसी ही ललक न उठे।
बादशाह नासिरूद्दीन टोपी सीकर गुजारा करते थे। गांधीजी कांग्रेस में किसी पद पर नहीं रहे फिर भी सबसे अधिक सेवा करने और मान पाने में समर्थ हुए। यह वे उदाहरण हैं जिनमें साथियों को अधिक विनम्र और संयमी बनने कीप्रेरणा मिलती है। पेशवाओं के प्रधान न्यायधीश राम शास्त्री की पत्नी जब राजमहल से बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण के उपहार लेकर वापस लौटी तो उन्होंने दरवाजा बंद कर लिया और कहा ब्राह्मणों की पत्नी को अपरिग्रही आदर्श अपनाना चाहिए।
साधना के अध्यात्म क्षेत्र में वरिष्ठता, योग्यता के आधार पर नहीं आत्मिक सद्गुणों की अग्नि परीक्षा में जांची जाती है। इस परीक्षा में निरहंकारिता को, विनयशीलता को अति महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। संन्यास लेते समय अपने अब तक के वंश, यश, पद, गौरव, इतिहास का विस्मरण करना होता है।
गुरू आश्रम एवं सम्प्रदाय का एक विनम्र सदस्य बनकर रहना पड़ता है। सेवा धर्म भी एक प्रकार से हल्की संन्यास परम्परा है। उसमें भूतकाल में अर्जित योग्यताओं, वरिष्ठताओं को प्रायः पूरी तरह भूला कर एक स्वयं सेवी के हाथों में जितनी प्रतिष्ठा लगती है उसी से सन्तोष करना होता है।
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